तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २५) तत्वज्ञान क्या है *********************By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब अब यहां पर ज्ञान का स्वरूप जानने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दुःख की उत्पत्ति होती किन कारणों से? वैसे तो जीवात्मा अपने मूल रूप में आनन्दमय है। तब अवश्य ही कोई कारण ऐसा होना चाहिये जो उसके लिये दुःख की सृष्टि करता है। उसको भी योगवाशिष्ठ में इस प्रकार बताया गया है—‘‘देह दुःख विदुर्व्याधिमाध्याख्यं मानसामयम् ।मौर्ख्य मूले हते विद्यातत्वज्ञाने परीक्षयः ।।’’शारीरिक दुःखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं। यह दोनों मुख्य अर्थात् अज्ञान से ही उत्पन्न होती हैं और ज्ञान से नष्ट होती हैं।बाल वनिता महिला आश्रमसंसार के सारे दुःखों का एकमात्र हेतु अविद्या अथवा अज्ञान ही है। जिस प्रकार प्रकाश का अभाव अन्धकार है और अन्धकार का अभाव प्रकाश होता है, उसी प्रकार ज्ञान का अभाव अज्ञान और अज्ञान का ज्ञान होना स्वाभाविक ही है और जिस प्रकार ज्ञान का परिणाम सुख-शान्ति और आनन्द है उसी प्रकार अज्ञान का फल दुःख, अशान्ति और शोक-सन्ताप होना ही चाहिये।यह युग-युग का अनुभूत तथा अन्वेषित सत्य है कि दुःखों की उत्पत्ति अज्ञान से ही होती है और संसार के सारे विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी जन इस बात पर एकमत पाये जाते हैं। इस प्रकार सार्वभौमिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिपादित तथ्य में संदेह की गुंजाइश रह ही नहीं जाती—इस प्रकार अपना-अपना मत देते हुये विद्वानों ने कहा है—चाणक्य ने लिखा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ विश्वविख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा है—‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्यों कि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।’’ शेक्सपियर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों और अशान्ति आदि का मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है। यही मनुष्य का परम शत्रु है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह अनेक दृष्टियों से हीन अवस्था में ही पड़ा रहता है। ज्ञान के अभाव में जिनका विवेक मन्द ही बना रहता है उनके जीवन के अन्धकार में भटकते हुये तरह-तरह के त्रास आते रहते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य को वास्तविक कर्तव्यों की जानकारी नहीं हो पाती इसलिये वह गलत मार्गों पर भटक जाता है और अनुचित कर्म करता हुआ दुःख का भागी बनता है। इसलिये दुःखों से निवृत्ति पाने के लिये यदि उनका कारण अज्ञान को मिटा दिया जाये तो निश्चय ही मनुष्य सुख का वास्तविक अधिकारी बन सकता है।अज्ञान का निवारण ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। शती उसकी विपरीत वस्तु आग द्वारा ही दूर होता है। अन्धकार की परिसमाप्ति प्रकाश द्वारा ही सम्भव है। इसलिये ज्ञान प्राप्त का जो भी उपाय सम्भव हो उसे करते ही रहना चाहिये।ज्ञान का सच्चा स्वरूप क्या है? केवल कतिपय जानकारियां ही ज्ञान नहीं माना जा सकता। सच्चा ज्ञान वह है जिसको पाकर मनुष्य आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर सके। अपने साथ अपने इस संसार को पहचान सके। उसे सत् और असत् कर्मों की ठीक-ठीक जानकारी रहे और वह जिसकी प्रेरणा से असत् मार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर असंदिग्ध रूप से चल सके। कुछ शिक्षा और दो-चार शिल्पों को ही सीख लेना भर अथवा किन्हीं उलझनों को सुलझा लेने भर की बुद्धि ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान वह है जिससे जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, कर्म-अकर्म और सत्य-असत्य का न केवल निर्णय ही किया जा सके बल्कि गृहणीय को पकड़ा और अग्राह्य को छोड़ा जा सके, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है।अज्ञान की स्थिति में कर्मों का क्रम बिगड़ जाता है। संसार में जितने भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व हैं वे सब कर्मों का फल होता है। अज्ञान द्वारा अपकर्म होना स्वाभाविक ही है और तब उनका दण्ड मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इतना ही क्यों सकाम भाव से किये सत्कर्म सुख के फल रूप में परिपक्व होते हैं और असत्य होने से कुछ ही समय में दुःख रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिये कर्म ही अधिकतर बन्धनों अथवा दुःख को मनुष्य पर आरोपित कराते हैं।
तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २५)
तत्वज्ञान क्या है
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अब यहां पर ज्ञान का स्वरूप जानने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर दुःख की उत्पत्ति होती किन कारणों से? वैसे तो जीवात्मा अपने मूल रूप में आनन्दमय है। तब अवश्य ही कोई कारण ऐसा होना चाहिये जो उसके लिये दुःख की सृष्टि करता है। उसको भी योगवाशिष्ठ में इस प्रकार बताया गया है—
‘‘देह दुःख विदुर्व्याधि
माध्याख्यं मानसामयम् ।
मौर्ख्य मूले हते विद्या
तत्वज्ञाने परीक्षयः ।।’’
शारीरिक दुःखों को व्याधि और मानसिक दुःखों को आधि कहते हैं। यह दोनों मुख्य अर्थात् अज्ञान से ही उत्पन्न होती हैं और ज्ञान से नष्ट होती हैं।
संसार के सारे दुःखों का एकमात्र हेतु अविद्या अथवा अज्ञान ही है। जिस प्रकार प्रकाश का अभाव अन्धकार है और अन्धकार का अभाव प्रकाश होता है, उसी प्रकार ज्ञान का अभाव अज्ञान और अज्ञान का ज्ञान होना स्वाभाविक ही है और जिस प्रकार ज्ञान का परिणाम सुख-शान्ति और आनन्द है उसी प्रकार अज्ञान का फल दुःख, अशान्ति और शोक-सन्ताप होना ही चाहिये।
यह युग-युग का अनुभूत तथा अन्वेषित सत्य है कि दुःखों की उत्पत्ति अज्ञान से ही होती है और संसार के सारे विद्वान, चिन्तक एवं मनीषी जन इस बात पर एकमत पाये जाते हैं। इस प्रकार सार्वभौमिक और सार्वजनिक रूप से प्रतिपादित तथ्य में संदेह की गुंजाइश रह ही नहीं जाती—इस प्रकार अपना-अपना मत देते हुये विद्वानों ने कहा है—चाणक्य ने लिखा—‘‘अज्ञान के समान मनुष्य का और कोई दूसरा शत्रु नहीं है।’’ विश्वविख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा है—‘अज्ञानी रहने से जन्म न लेना ही अच्छा है, क्यों कि अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का मूल है।’’ शेक्सपियर ने लिखा है—‘‘अज्ञान ही अन्धकार है।’’
जीवन की समस्त विकृतियों, अनुभव होने वाले दुःखों, उलझनों और अशान्ति आदि का मूल कारण मनुष्य का अपना अज्ञान ही होता है। यही मनुष्य का परम शत्रु है। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भी अन्य जीव-जन्तुओं की तरह अनेक दृष्टियों से हीन अवस्था में ही पड़ा रहता है। ज्ञान के अभाव में जिनका विवेक मन्द ही बना रहता है उनके जीवन के अन्धकार में भटकते हुये तरह-तरह के त्रास आते रहते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य को वास्तविक कर्तव्यों की जानकारी नहीं हो पाती इसलिये वह गलत मार्गों पर भटक जाता है और अनुचित कर्म करता हुआ दुःख का भागी बनता है। इसलिये दुःखों से निवृत्ति पाने के लिये यदि उनका कारण अज्ञान को मिटा दिया जाये तो निश्चय ही मनुष्य सुख का वास्तविक अधिकारी बन सकता है।
अज्ञान का निवारण ज्ञान द्वारा ही हो सकता है। शती उसकी विपरीत वस्तु आग द्वारा ही दूर होता है। अन्धकार की परिसमाप्ति प्रकाश द्वारा ही सम्भव है। इसलिये ज्ञान प्राप्त का जो भी उपाय सम्भव हो उसे करते ही रहना चाहिये।
ज्ञान का सच्चा स्वरूप क्या है? केवल कतिपय जानकारियां ही ज्ञान नहीं माना जा सकता। सच्चा ज्ञान वह है जिसको पाकर मनुष्य आत्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर सके। अपने साथ अपने इस संसार को पहचान सके। उसे सत् और असत् कर्मों की ठीक-ठीक जानकारी रहे और वह जिसकी प्रेरणा से असत् मार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर असंदिग्ध रूप से चल सके। कुछ शिक्षा और दो-चार शिल्पों को ही सीख लेना भर अथवा किन्हीं उलझनों को सुलझा लेने भर की बुद्धि ही ज्ञान नहीं है। ज्ञान वह है जिससे जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, कर्म-अकर्म और सत्य-असत्य का न केवल निर्णय ही किया जा सके बल्कि गृहणीय को पकड़ा और अग्राह्य को छोड़ा जा सके, वह ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही है।
अज्ञान की स्थिति में कर्मों का क्रम बिगड़ जाता है। संसार में जितने भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्व हैं वे सब कर्मों का फल होता है। अज्ञान द्वारा अपकर्म होना स्वाभाविक ही है और तब उनका दण्ड मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। इतना ही क्यों सकाम भाव से किये सत्कर्म सुख के फल रूप में परिपक्व होते हैं और असत्य होने से कुछ ही समय में दुःख रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। इसलिये कर्म ही अधिकतर बन्धनों अथवा दुःख को मनुष्य पर आरोपित कराते हैं।
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